दशहरा: बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व और इसके अनसुने पहलू
दशहरा, जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है, भारत का एक प्रमुख त्योहार है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। यह पर्व हर साल पूरे देश में नवरात्रि के बाद धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम द्वारा रावण के वध और देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर के संहार का जश्न मनाया जाता है। इस लेख में हम दशहरे से जुड़े कुछ ऐसे पहलुओं पर चर्चा करेंगे जो बहुत कम लोग जानते हैं।
दशहरा: एक पर्व, दो कहानियां
दशहरा का नाम संस्कृत के शब्दों से आया है। यह पर्व दो जीत का जश्न मनाता है—पहला, भगवान राम की रावण पर जीत और दूसरा, देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय। 'दशहरा' शब्द का अर्थ है 'दश' यानी दस और 'हारा' यानी हार, जो सूर्य की हार को भी दर्शाता है। वहीं, 'विजयदशमी' का अर्थ है विजय का दसवां दिन। इन दोनों कहानियों के माध्यम से, दशहरा हमें बताता है कि सच्चाई और धर्म की हमेशा जीत होती है।
मैसूर का दशहरा: भव्यता और परंपरा का संगम
मैसूर का दशहरा भारत में सबसे भव्य रूप से मनाए जाने वाले उत्सवों में से एक है। यह परंपरा 17वीं शताब्दी के आसपास शुरू हुई थी। यहां पर सजे-धजे हाथियों का जुलूस निकाला जाता है, जिसमें देवी चामुंडेश्वरी को एक सुनहरी पालकी में रखा जाता है। इस जुलूस को देखने के लिए देश-विदेश से हजारों पर्यटक आते हैं। मैसूर का दशहरा राजसी शान और भारतीय संस्कृति का अद्वितीय उदाहरण है।
रावण के दस सिर: ज्ञान और मानवीय भावनाओं का प्रतीक
पौराणिक कथाओं के अनुसार, रावण के दस सिर उनके ज्ञान का प्रतीक हैं, जिसमें छह शास्त्रों और चार वेदों का ज्ञान शामिल है। इसके अलावा, रावण के दस सिर दस मानवीय भावनाओं को भी दर्शाते हैं—क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार, वासना, लालच, अभिमान, मोह, स्वार्थ, अन्याय, और क्रूरता। यह दशहरा का पर्व हमें यह संदेश देता है कि हमें अपनी नकारात्मक भावनाओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
कुल्लू का दशहरा: देवताओं की घाटी में एक सप्ताह का उत्सव
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा एक अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। यहां का दशहरा पर्व सात दिनों तक चलता है। यह पर्व भगवान रघुनाथ और अन्य देवताओं के जुलूस के साथ शुरू होता है, जिन्हें कुल्लू की घाटी में पूरे शहर में ले जाया जाता है। कुल्लू का दशहरा दर्शाता है कि किस तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में एक ही त्योहार को विविधता के साथ मनाया जाता है।
भारत से बाहर भी है दशहरे की धूम
दशहरा केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह त्योहार नेपाल, बांग्लादेश और यहां तक कि मलेशिया में भी मनाया जाता है। यह पर्व केवल धर्म तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपराओं को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने का एक अवसर भी है।
पांडवों की वापसी और शमी वृक्ष की पूजा
बहुत कम लोग जानते हैं कि दशहरे का पर्व पांडवों की वनवास से वापसी का भी प्रतीक है। महाभारत के अनुसार, वनवास का अंतिम वर्ष पूरा होने के बाद पांडवों ने विजयदशमी के दिन अपने हथियारों को पुनः प्राप्त किया और शमी वृक्ष की पूजा की। तभी से शमी वृक्ष को सद्भावना और विजय का प्रतीक माना जाता है।
सम्राट अशोक और बौद्ध धर्म
दशहरे के दिन का बौद्ध धर्म में भी एक विशेष महत्व है। इसी दिन प्रसिद्ध सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैलाने का कार्य किया। यह दिन अहिंसा और शांति का संदेश भी देता है।
दशहरा: मौसम के परिवर्तन का संकेत
दशहरा न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह मौसम के परिवर्तन का भी प्रतीक है। यह पर्व मॉनसून के अंत और ठंड के आगमन का संकेत देता है। दशहरे के बाद, किसान खरीफ की फसल काटते हैं और दिवाली के बाद रबी की फसल की तैयारी करते हैं। यह पर्व नए मौसम की शुरुआत और नई आशाओं का संदेश लेकर आता है।
निष्कर्ष
दशहरा का पर्व भारतीय संस्कृति और धार्मिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह पर्व हमें सिखाता है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः सच्चाई और अच्छाई की ही जीत होती है। चाहे वह रामलीला हो, रावण के पुतलों का दहन हो, या फिर मैसूर और कुल्लू की भव्यता—दशहरा हर रूप में हमें एकता, शक्ति, और विजय का संदेश देता है। इस साल, आइए हम भी दशहरे का जश्न मनाएं और अपने भीतर की नकारात्मकता को जलाकर अच्छाई को अपनाएं।